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शनिवार, 11 जून 2011

नागरब्राह्मण


   
आज हम लोग बात करेंगे अति प्राचीन और प्रतापी विद्वत ब्राह्मण समाज के एक समुदाय नागर ब्राह्मणों के बारे में जिनके लिए ऐसा माना जाता है कि ये गुजराती नागर ब्राह्मण सबसे प्राचीन, सभ्य, सुसंस्कृत तथा कर्तव्यपरायण ब्राह्मण समुदायों में से एक हैं। ये अत्यन्त स्वाभिमानी और सनातन धर्म के विधि-निषेधों का पालन करने वाली ज्ञाति है।
     कई भाषाविदों व इतिहासकारों ने इनके बारे में लिखा है। कुछ ने नागर ब्राह्मणों की उत्पत्ति आर्यों से बताई है। प्राचीन आर्यावर्त की सीमाएँ जब सुदूर फैली हुई थीं तब यह ब्राह्मण निरंतर युद्ध की विभीषिकाओं को झेलते हुए मध्य एशिया (उत्तरी अफगानिस्तान के एक प्रान्त बल्ख जो आर्यावर्त का ही भाग था ) से आधुनिक भारत में आये और अपने प्रवासन के दौरान हिन्दुकुश से होते हुए तिब्बत और फिर कश्मीर (कश्मीर उन दिनों मध्य एशिया तक था और इसकी सीमायें ताजिकिस्तान तक) से होकर कुरुक्षेत्र में बस गए
    सनातन शास्त्रपरम्परा का परम ग्रंथ स्कन्दपुराण ऐसी ही प्राचीनतम पुस्तक है जिसमे नागर ब्राह्मणों की उत्पत्ति के विषय में उल्लेख मिलता है। 
      मूल सार यह है कि नागर ब्राह्मण सर्वोत्कृत्ष्ट ब्राह्मण थे, अतः ब्राह्मण धर्म को और आगे बढाने के कार्य के लिए तत्कालीन नागर ब्राह्मणों को लगाया गया था।
     नागर ब्राह्मण धर्म का अर्थ समझाने और व्याख्या करने के कार्य में निपुण थे और विशेष ज्ञान रखते थे और इसके बदले में कोई पारिश्रमिक भी नहीं लेते थे इसलिए राजाओं द्वारा इन्हें भूमि दे दी जाती थी, अधिकतर इनका निवास स्थान वडनगर और आनंदनगर के आसपास था। 
       नागर ब्राह्मण समुदाय के ये लोग सुदूर प्रदेशों की यात्रा करते थे मिश्र , बेबीलोन , ब्राज़ील, काबुल, भारत, चीन तथा कम्बोडिया जैसे देशों में इन्ही लोगों ने शिव तथा शैव मत में विश्वास स्थापित किया
        नागर ब्राह्मणों के विषय में कई किंवदंतियाँ भी उपलब्ध हैं, उनके बारे में भी लिखे बिना लेख को निरपेक्ष रूप से पूर्ण संभवतः न माना जाय अतः लिखना ही श्रेयस्कर होगा। 
        सर हर्बर्ट रिसले ने लिखा-- नागर 'शक' और 'द्रविड़' हैं जो सिंध में रहते थे डाक्टर भंडारकर ने कहा-नागर इस देश में कश्मीर से होते हुए राजस्थानपंजाब, उत्तर प्रदेश ,बंगाल, मालवा, और गुजरात में बस गये। 
       नागर और ग्रीक लोगों के सोच-विचार तथा शारीरिक बनावट आज भी आपस में मिलती-जुलती है, ऐसा भी लिखा गया किन्तु कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
          जूनागढ़ के एक इतिहासकार श्री शंभू प्रसाद देसाई ने अपनी पुस्तक में बताया है कि नागर सबसे पहले ग्रीस
मकदूनिया, सीरिया के धार्मिक स्थानों से आए। 

        कुछ लेखक कहते है कि जोर्डन और इसराईल के पास नागर नाम का एक स्थान है तथा इरान में भी नागर समुदाय के लोग निवास करते हैं।
         कुछ कथाकारों ने लिखा कि वे सर्वप्रथम हिमालय के कांगड़ा (पुराना नागरकोट) आये, नाग का अर्थ है पहाड़ और नागर का अर्थ है पहाड़ी पर रहनेवाला।
         स्कन्दपुराण के नागरखंड के अनुसार भगवान् शिव ने उमा से विवाह के लिए नागरों को उत्पन्न किया तथा इसके पश्चात प्रसन्न होकर उत्सव मनाने के लिए इन्हें हाटकेश्वर नाम का स्थान वरदान के रूप में दिया था
            नागर ब्राह्मण के मूल स्थान के आधार पर ही उन्हें जाना जाने लगा जैसे वडनगर के वडनगरा ब्राह्मण विसनगर के विसनगरा ,प्रशनिपुर के प्रशनोरा (राजस्थान,) जो अब भावनगर तथा गुजरात के अन्य प्रान्तों में बस गए, क्रशनोर के क्रशनोरा तथा शतपद के शठोदरा आदि
            एक अन्य कथा के अनुसार एक ब्राह्मण पुत्र क्रथ एक बार घूमते- घूमते नागलोक के नागतीर्थ में पहुँच गया वहां उसका मुकाबला नाग लोक के राजकुमार रुदाल से हो गया, इसमें नाग कुमार मारा गया। इससे नाग राज को क्रोध आ गया और उसने पुत्र की हत्या करने वाले कुल का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा कर ली उसने गाँव पर चढ़ाई कर दी जो आज वडनगर के नाम से जाना जाता है, वहीँ ब्राह्मण कुमार क्रथ अपने परिवार तथा अन्य कुटुंब के साथ रहता था इसमें बहुत सारे ब्राह्मण परिवार मारे गए और बचे हुए लोगों ने भाग कर एक संत मुनि त्रिजट के पास शरण ली त्रिजट ने उन्हें भगवान शिव की आराधना करने को कहा बाह्मणों ने पूरे मन और भक्ति भाव से भगवान शिव की तपस्या की भगवान शिव प्रसन्न हो गए पर चूंकि नाग भी शिव के भक्त थे अतः शिव ने नागों का अहित करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की परन्तु ब्राह्मणों को सर्पों के विष से बचने की शक्ति प्रदान कर दी ब्राह्मण अपने गाँव को लौट गए और तब से इन्हें ना-गर (जिस पर अगर अर्थात विष का प्रभाव ना पड़ता हो ) कहा जाने लगा । 
           नागर समुदाय के ब्राह्मण समस्त ब्राह्मणों में सबसे अधिक श्रद्धेय तथा पवित्र भी माने जाते हैं यह लगभग सभी ने निर्विवाद माना है। 
           इस सम्बन्ध में एक और प्रचिलित कथा है किचमत्कारपुर के ब्राह्मणों को वहां के नाग समुदाय द्वारा सताया जाता था। नागों ने ब्राह्मणों की एक बाल-विधवा 'भट्टीका' का हरण कर लिया जिससे ब्राह्मणों और नागों में युद्ध छिड़ गया इस समय राजा प्रभंजन का राजकाल था उसी समय एक अशुभ घडी में राजा को संतान के रूप में पुत्र उत्पन्न हुआ राजा के निवेदन पर ब्राह्मणों ने शांति के लिए यज्ञ किया परन्तु वहां महामारी फ़ैल गयी, तब ब्राह्मणों ने अग्नि देव से प्रार्थना कि और उपाय पूछा अग्नि देव ने बताया कि तुममे से कोई एक अशुद्ध है , इसके लिए 'प्रभावदत्त' नामक एक ब्राह्मण ने प्रायश्चित करने का निश्चय किया और वह जंगल में भगवान् शिव कि तपस्या करने चला गया उसकी तपस्या से भगवान् शिव प्रसन्न हो गए और उसे नाग मंत्र दिया जिससे बाद में ब्राह्मणों ने पुनः नागो से युद्ध करके उन्हें पराजित किया और 'प्रभावदत्त' को अपना नेता मान लिया और यही प्रभावदत्त बाद में 'भारती यज्न' के नाम से जाने गए
              राजा रूद्रदमन
–II के एक प्रसिद्द सावंत ने लिखा है कि आखिरकार वडनगर के नागर ब्राह्मणों ने ३४८ AD में नागों से वडनगर को पुनः अपने अधिकार में कर लिया नागरों के विवाह समारोह में उप्तमणि(कई स्थान पर इसे उक्तमनी भी कहा गया) पढ़े जाने की प्रथा है और उसमे भी संवत ४०४ तथा ३४८ AD का सन्दर्भ आता है
               कहा जाता है कि एक बार बहुत छोटी जाति के एक व्यक्ति ने स्वयं को नागर बता कर किसी नागर कन्या से विवाह कर लिया सत्य का पता लगा
, तो उस कन्या ने आत्मदाह कर लिया तब भारती यज्ञ (प्रभाव दत्त) ने एक विशेष नियम बना दिया कि कोई भी नागर ब्राह्मण अपनी कन्या का विवाह पूरी छान बीन और विस्तृत जान कारी के बगैर नहीं करेगा,और इसी समय से नागरों के विवाह में उप्तमणि पढने का प्रचलन व्यवहार में आया जिसमे वर तथा कन्या पक्ष के पूर्वजों,वरिष्ठ व्यक्तियों और उनके नाते-रिश्तेदारों के बारे में पूरी जानकारी होती है
नागरों का प्रवास :-
                नागर ब्राह्मणों में एक अतिप्रसिद्द योद्धा बप्पारावल हुए हैं जिनके उपनाम से आज भी आनंदपुर के कुछ नागर ब्राह्मणों में रावल उपनाम लगाया जाता है । कहते हैं कि इन्ही लोगों ने चितौड़ को मोरी साम्राज्य से अपने अधीन कर लिया और मेवाड़ की स्थापना की । 
    प्रभासपाटन के १२१६ AD में प्राप्त शिलालेख में वडनगर को भी नागर” ही लिखा गया है। इनके वंशज गुजरात के मंत्री तथा सभी बड़े पदों पर विद्यमान थे। वडनगर के तोरण द्वार पर प्रशस्ती गान के रूप में ११५२ AD के शिलालेख में नागर राजा कुमारपाल का वर्णन ,वडनगर में किले और शिव मंदिर का निर्माण कराया था, एक कथा के अनुसार चमत्कारपुर के राजा को कुष्ठ रोग से शापित होने पर वाहन के कुछ स्थानीय ब्राह्मणों ने जड़ी-बूटियों से स्वस्थ कर दिया था। इसपर राजा ने उन्हें राज्य की भूमि तथा धन देना चाहा पर आदर्शवादी ब्राह्मणों ने इसे लेने से मना कर दिया,तब रानी के द्वारा ब्राह्मणों की पत्नियों को समझा बुझा कर ७२ ब्राह्मण परिवारों में से ६८ परिवारों कोवह भूमि दान की गई पर ४ परिवार न माने और अपने परिवारों को लेकर राज्य से बाहर हिमालय पर चले गए और इन चार परिवारों से नागरों के गोत्र का प्रारंभ हुआ। 
कुछ मानते हैं कि चमत्कारपुर के उसी राजा ने नागर ब्राह्मणों का आभार मानते हुए उनकी याद में ही भगवान शिव का प्रसिद्द हाटकेश्वर मंदिर बनवाया था। आज भी उस नगर को वडनगर कहा जाता है जिसके निवासी नागरहैं । 
इसके बाद कई मौकों पर वडनगर पर विदेशी शासकों और मुस्लिम आततायियों द्वारा हमले किये गए और निवासी नागरों के धर्म परिवर्तन का प्रयास किया गया गया, फलस्वरूप सनातन धर्म मे प्रबल आस्था रखने वाले धर्मपरायण नागरों ने सौराष्ट्र और राजस्थान में शरण ली। कुछ ब्राह्मण परिवार अपना धर्म बचाए रखने की इच्छा से मध्यप्रदेश दिल्ली, आगरा, मथुरा और उत्तर प्रदेश में वाराणसी काशी और प्रयाग में गंगा और यमुना के किनारे बस गए जिससे आवश्यकता पड़ने पर यदि उनका जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करने का प्रयास किया जाय तो वे नदी में कूद कर अपने प्राण त्याग सकें। 
वे अलग–अलग स्थानों में बस गए परन्तु अपनी भाषा, रहन-सहन और पहचान बनाये रखी । लगभग १०४० AD में अजमेर के राजा विशालदेव ने गुजरात को अपने अधीन कर लिया था तथा विशालनगर की स्थापना की जो बाद में विशनगर के नाम से प्रचलित हुआ ।इसीप्रकार चितकुटपति(चित्तौड़),प्रशनिपुर, क्रशनोर और शतपद आदि में वडनगर के नागरों कि प्रशाखाएँ बनी । आज भी गुजरात में नागर ब्राह्मण सनातनी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं और कर्मकांड आदि कराने के लिए लोग इन्हें प्राथमिकता देते हैं।
प्रसिद्द संत नरसी मेहता की कथा :-      
                     नागर ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए संत नरसी मेहता को कौन नहीं जानता है। (कहीं-कहीं इन्हें नरसी मेहता भी कहा गया) महात्मा गाँधी ने अपने प्रिय भजन वैष्णव जन तो तेंन्हे कहिएं को नरसी मेहता की रचनाओं से ही लिया है । यह इतना प्रसिद्द हुआ कि इसके अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओँ में अनुवाद भी हुए।
वैष्णव जन तो तेने कहिए
, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए
, मन अभिमान न आए रे।
सकल लोक मा सहुने वंदे
, निंदा न करे केनी रे,
वाच काछ मन निश्चल राखे
, धन धन जननी तेरी रे।
समदृष्टि ने तृष्ना त्यागी
, परस्त्री जेने मात रे,
जिव्हा थकी असत्य न बोले
, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापै नहिं जेने
, दृढ़ वैराग्य जिन मन मा रे,
राम नाम सूं ताली लागी
, सकल तीरथ तेना मन मा रे।
वणलोभी ने कपट रहित छे
, काम क्रोध निवार्या रे,
भणे नरसैयो तेनुं दरशन करना
, कुल एकोत्तरे तार्या रे।
                 ऐतिहासिक दृष्टि से नरसी मेहता के जीवन काल में कुछ मतभेद हैं। कहा जाता है कि उनका जन्म १४०० इ. के लगभग ग्राम तलाजा
, जिला भावनगर, सौराष्ट्र में हुआ। कुछ स्थानों पर इनका जन्म जूनागढ़ भी वर्णित है ।  इनकी रचनाओं में वंसत ना पदो, कृष्णजन्म ना पदो,  चातुरीछब्बीसी, चातुरीषोडशी, दाणलीला, सुदामाचरित, राससहस्त्रपदी, बाललीला, हारमाला, श्रृंगारमाला, श्यामलशाह नो विवाह आदि विशेष महत्वपूर्ण है। श्रृंगारमाला के 740 पदों में श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेम और माधुर्य की भावना व्यक्त की गई है। उन्होंने प्रभातियां नाम से प्रातःकालीन गाए जाने वाले भक्तिगान रचे हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हुए। काफी कम उम्र में ही उनके माता पिता का देहांत हो गया। नरसी मेहता अपने भाई वंशीधर और भाभी के साथ जूनागढ़ में रहते थे। नरसी बचपन से ही साधु-संतों की सेवा किया करते थे और जहां कहीं भजन-कीर्तन होता था, वहीं जा पहुंचते थे। रात को भजन-कीर्तन में जाते तो उन्हें समय का ख्याल न रहता। कहते हैं कि पूर्व में वे सभी नागर ब्राह्मणों की तरह वे भी शैव थे पर शिवजी के द्वारा ही कृष्ण के दर्शन कराये जाने के पश्चात वे कृष्ण भक्ति में रम गए। कृष्ण भजन में वे इतना डूब जाते कि घर के काम काज में बिलकुल भी ध्यान नहीं देते थे सारा समय कृष्ण भक्ति में ही लगे रहते। किशोरावस्था में ही भाई वंशीधर ने इनका विवाह माणिककबाई से कर दिया जिससे गृहस्थी में उनका मन लगे तो पूजा-पाठ छूट जाये पर इससे भी नरसी की भजन गाने की इच्छा और कृष्ण भक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भाभी नरसी मेहता को ताने देती और बहुत कोसती थी। एक दिन भाभी ने इन्हें घर से निकाल दिया और ये जंगल चले गए और बिना खाए पिये कई दिनों तक गोपेश्वर के शिवमंदिर में पड़े रहे । शिवलिंग को देखकर नरसी का हृदय भक्ति से भर गया था, वे शिवलिंग के साथ लिपट कर रोते रहे, उन्होंने शिवलिंगको अपनी बांहों में भर लिया था। वे भजन गाते रहे और शिवजी की आराधना करते रहे, तब भगवान शिव प्रगट हो गए और नरसी मेहता को गोलोक में श्री कृष्ण की रासलीला दिखाने ले गए। नरसी मेहता रासलीला देखते हुए इतने खो गए कि हाथ में पकडे मशाल से उनका हाथ जल गया। भगवान कृष्ण ने स्वयं उनका हाथ ठीक कर दिया और नरसी मेहता को भक्ति का वरदान दिया । जिस भाभी की वजह से उन्हें भगवान के दर्शन हुए उन्हें भी नरसी ने घर आने पर धन्यवाद दिया और अपना गुरु माना।
                    कहा जाता है कि उनका निवास स्थान आज भी नरसी मेहता का चौराके नाम से प्रसिद्ध है। वे हर समय कृष्णभक्ति में तल्लीन रहते थे। भक्ति के अतिरिक्त उन्हें कुछ न सूझता था, उनके लिए सब बराबर थे। छुआ-छूत वे मानते नहीं थे और हरिजनों के घर जाकर उनके साथ कीर्तन किया करते थे। इससे नागर बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया, पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा और वे अपनी कृष्ण भक्ति में लगे रहे। नरसी की दो संताने हुई। पुत्र का नाम था श्यामलदास और पुत्री थी कुंवरबाई। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में शीघ्र ही पुत्र श्यामल की मृत्यु का वियोग भी सहना पड़ा था। शीघ्र ही पत्नी भी संसार को छोड़कर चल बसीं। पत्नी की मृत्यु का समाचार भी उन्हें कीर्तन करते हुए ही मिला था। तब उन्होंने कहा था- "अच्छा हुआ, यह झंझट भी मिट गया। अब बिना किसी की टोका-टाकी अपने गोपाल का भजन करेंगे।
                     भजन-कीर्तन के नाम पर जब और जहां चाहो, नरसी मेहता को रोका जा सकता था लो। नरसी के भक्ति भावना की कई कथाएँ प्रचलित हैं ।
                   एक बार पिता के श्राद्ध के दिन वह घी लेने बाज़ार गये। वहां कीर्तन की बात चली तो वहीं जम गये। ऐसे जमे कि घर, श्राद्ध, घी और भोजन के लिए बुलाये लोगों को भूल गये। तब भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं नरसी का रूप धरकर उनके घर जाना और श्राद्ध का काम करना पड़ा। नरसी जब घर लौटे तब तक ब्राह्मण खा-पीकर जा चुके थे। उन्हें पता चला कि श्राद्ध का सब कार्य उन्होंने ही किया है। एक बार कुछ यात्री जूनागढ़ आये। उन्हें द्वारिका जाना था। पास में जो रकम थी, वह वे साथ रखना नहीं चाहते थे, क्योंकि उस समय जूनागढ़ से द्वारिका के रास्ते में जंगल था । चोर-डाकुओं का भय से वे यात्री किसी सेठ के यहां अपनी रकम रखकर द्वारिका के लिए उसकी हुंडी ले जाना चाहते थे। उन्होंने किसी से ऐसे सेठ का नाम पूछा तो उस आदमी ने ठिठोली करते हुए नरसी का नाम और घर बता दिया। वे यात्री नरसी के पास पहुंचे और उनसे हुंडी के लिए प्रार्थना करने लगे। नरसी ने उन्हें बहुत समझाया कि वे बहुत गरीब हैं और उनके पास कृष्ण भक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है पर जब यात्री नहीं माने तो आखिर में नरसी ने लाचार होकर वह चिट्ठी द्वारिका में श्रीकृष्ण के नाम (शामला गिरधारी ) हुंडी लिख दी। यात्री बड़ी श्रद्धा से हुंडी लेकर चले गये और इधर नरसी अपना बाजा बजाकर म्हारी हुंडी स्वीकार जो महाराज रे श्यामला गिरधारी गाने लगे। यात्री द्वारिका पहुंचकर सेठ श्यामला गिरधारी को ढूंढते-ढूंढ़ते थक गये, पर उन्हें इस नाम का व्यक्ति न मिला। बेचारे निराश हो गये। इतने में द्वारका मंदिर के बाहर उन्हें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण श्यामला गिरधारी के वेश में मिल गये। द्वारिकाधीश ने ही श्यामला गिरधारी बनकर नरसी की लाज रख ली थी।
             एक समय नरसी की ध्योती की शादी थी। नरसी बहुत गरीब थे उन्होंने कहा की बेटी मेरे पास तो शादी में देने के लिये कुछ भी नहीं है। मैं आ जाऊंगा लेकिन भगवान का नाम ही लूँगा। जब नरसी अपनी ध्योती की शादी में पहुंचे तो किसी स्त्री ने उन की समधिन से पूछा की लड़की के नाना आये है, उन्होंने कन्यादान में क्या दिया है। समधिन ने मजाक में कह दिया की दो भाठे(पत्थर) दिये हैं।
         यह सुन कर नरसी का सिर शर्म से झुक गया और भगवान को याद कर उन्हें अपनी इज्जत बचाने की प्रार्थना की। तभी भगवान सामान की बैलगाड़ी लाद कर ले आए जिसमे चुनरी और  विवाह का सारा सामान, गहने, हीरेमोती, घोड़े,पालकी तथा अनेक तरह के उपहार थे। नरसी जी ने खुशी-खुशी भात भरा। तभी दो भाठे टूट गये और उसमे से सोने और चांदी के सिक्के गिरने लगे। इस तरह भगवान ने सदैव अपने प्रिय भगत नरसी मेहता का ध्यान रखा।
               भक्त नरसी मेहता की इस कथा को आज भी पूरे राजस्थान में नानी बाई का मायरा के नाम से बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ गाया जाता है। भागवत कथा की ही तरह इसको सुनने और सुनाने का बड़ा ही महत्त्व है और यह राजस्थान की परम्परा भी है।  
               भारत सरकार ने नरसी मेहता के नाम पर डाक टिकट भी जारी किया है।


ताना और रीरी बहनों की कहानी:-
     कथा कुछ इस प्रकार है कि वडनगर के नागर ब्राह्मण परिवार में ताना और रीरी नाम की दोनों बहनों का जन्म हुआ था। यह सोलहवीं सदी की बात है, भारत में तब मुगल शहंशाह अकबर का शासनकाल था। तानसेन उस समय संगीत के महान गायक थे और अकबर के नवरत्नों में भी थे। एक बार अकबर ने तानसेन से दीपक राग गाने को कहा। दीपक राग यदि अच्छी तरह से गाया जाय तो गाने में इतनी शक्ति है कि दीपक खुद-ब-खुद जल उठते हैं। तानसेन ने अकबर को कहा कि दीपक राग तभी गाया जा सकता है जब कोई  मेघ-मल्हार राग गाने वाला वहां हो क्योंकि इसे गाने के बाद गाने वाले के पूरे शरीर में जलन होने लगती है। वहां कोई भी मल्हार गाने वाला नहीं था, इसके बावजूद अकबर अपनी जिद पर अड़ा रहा। मजबूर हो कर तानसेन को दीपक राग गाना पड़ा। तानसेन के दीपक राग गाने पर दरबार में रखे सारे दीपक अपने आप जल उठे। यह चमत्कार देख कर अकबर हैरान रह गया उसने तानसेन की  प्रशंसा की, पर तानसेन का पूरा शरीर जल रहा था वे भटकते हुए मल्हार गाने वाले की खोज करते-करते गुजरात तक वड़नगर आए। जहां वे रुके थे  वहीं एक कुएं के पास पानी भरने दो लड़कियां आईं। बात ही बात में उन लड़कियों ने जान लिया कि यही तानसेन हैं। उन्होंने तानसेन से पूछा कि उनकी जलन का क्या इलाज हो सकता था। तानसेन ने उन्हें बताया कि दीपक राग से जला हुआ व्यक्ति सिर्फ मेघ-मल्हार राग गाने से ठीक हो सकता है।  तानसेन को बचाने के लिए ताना और रीरी ने मेघमल्हार गाया। उनके गाते ही जैसे चमत्कार हुआ।  तेज वर्षा होने लगी।  इस बारिश ने तानसेन की जलन को ठीक कर दिया। कुछ दिनों के बाद तानसेन दिल्ली चले गए।  तानसेन से उनके स्वस्थ होने की पूरी बात सुन कर अकबर ने उन दोनों लड़कियों को दरबार में ले आने और मल्हार राग गाने का हुक्म दिया। लड़कियों ने कहा कि हम मुग़ल बादशाह के  दरबार में नहीं गाएंगी। अकबर जिद पर अड़ा रहा।  कोई उपाय न देख कर उन दोनों ने कुएं में डूब कर आत्महत्या कर ली। तानसेन ने जीवन बचाने वाली उन लड़कियों की याद में ताना-रीरी नाम की रागिनियाँ बनाई और इस तरह  दोनों बहनों का नाम संगीत के इतिहास में अमर हो गया। दोनों बहनों की याद में मंदिर का निर्माण हुआ है।


क्रमशः.....